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शिक्षा का गिरता स्तर और बढ़ती फीस: नीति-निर्माताओं में इच्छा शक्ति का अभाव या असंवेदनशील दृष्टिकोण?

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देश में स्कूल से लेकर कॉलेज समेत हर शिक्षण संस्थान में लगातार फीस बढ़ोत्तरी एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है लेकिन इसके साथ शिक्षा का गिरता स्तर भी चिंताजनक है। पढ़िये प्रो. (डॉ.) सरोज व्यास का यह ब्लॉग

नई दिल्ली: “शिक्षा के गिरते स्तर और बढ़ती फीस के लिए ज़िम्मेदार कौन” ? लेख द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मन की व्यथा को विचारशील विवेकी पाठकों तक प्रेषित करने मात्र से क्या आपका कर्तव्य पूरा हो गया? क्या केवल प्रश्नचिन्ह लगाना पर्याप्त है? क्या आपके पास कोई सुझाव है? सहयोगी डॉ. गीता ने पूछा – समस्या के साथ समाधान होने चाहिये, ऐसा आप कहती है। मैंने कहा-समाधान और सुझाव हैं, लेकिन कोई समझना ही नहीं चाहता।

“भारत की 28वीं शिक्षा मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी (26 मई 2014-5 जुलाई 2016) से लेकर दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सीसोदिया (14 फरवरी 2015–28 फरवरी 2023) तक से अथक प्रयासों के बाद मिलने का समय लेने में तो सफल हो गयी, किन्तु हाथ लगी केवल “घंटों की प्रतीक्षा और निराशा”। सांत्वना थी अथवा प्रोत्साहन नहीं जानती लेकिन उसने कहा – कोई बात नहीं, फिर  भी लिखिए शायद किसी को कुछ समझ में आ जाए । आपको लेखन के माध्यम से जन सामान्य की आवाज़ उठानी चाहिए। जैसे आप यशपाल कमेटी का उल्लेख कर रही है, भविष्य में कोई आपके सुझावों का उद्धरण दे सकता है।

केवल त्रुटियों एवं असफलताओं की चर्चा मेरी मंशा नहीं हैं, लेख के माध्यम से धरातलीय स्तर पर सुझाव देने का दु:स्साहस कर रही हूँ । दिन-प्रतिदिन संस्थानों के अध्यक्षों, निदेशकों, प्राचार्यों और शिक्षक समुदाय के समक्ष आने वाली चुनौतियों तथा कठिनाइयों की ओर सत्ता और शीर्षासन पर विराजमान शिक्षा मंत्रियों, विश्वविद्यालय के कुलपतियो एवं तथाकथित नीति-निर्माता शिक्षाविदों को ध्यान देने की आवश्यकता है।

बस्ते का बोझ कम नहीं हुआ
यशपाल कमेटी 1993 की रिपोर्ट का शीर्षक ‘शिक्षा बिना बोझ के’ था, इससे पूर्व नरेन्द्र देव समिति – 1947, राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 1986, में भी इस सम्बन्ध में सुझाव दिए गये थे। शिक्षा मंत्रालय शैक्षिक गुणवत्ता के लिए प्रतिबद्ध है और आवंटित बजट धनराशि को ख़र्च भी कर रहा है। फिर क्यों आज तक इन सिफारिशों को जमीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया ? क्या सरकारों द्वारा गठित समितियों, कमेटियो और आयोगों का गठन केवल हितधारकों (स्टेकहोल्डर) के मुहं पर ताला लगाने के लिए किया जाता है कि देखिए सरकार कितनी संजीदा है। यदि यह सच नहीं है तो सुझावों की अनदेखी क्यों?

सूर्या फाउंडेशन के संस्थापक एवं चैयरमैन, पद्मश्री जयप्रकाश जी के नेतृत्व एवं प्रो. एच एल शर्मा जी के मार्गदर्शन में पहली से पाँचवी तक, एक कक्षा-एक किताब को सूर्या भारती के शिक्षाविदों ने वर्ष 2000 में ही तैयार कर दिया था। अन्य शिक्षाविदों और समाज सेवी संस्थाओं द्वारा भी निरंतर इस क्षेत्र में कार्य किया जा रहा है। सभी के द्वारा समय-समय पर महामहिम राष्ट्रपति जी, प्रधानमंत्री जी और शिक्षा मंत्रियों के संज्ञान में भी इसे लाया गया है।

नि: स्वार्थ किए गये प्रयास एवं परिश्रम की भूरी-भूरी प्रशंसा तो होती है, लेकिन नियमों को कठोरता से लागू किए जाने की दिशा में कोई ठोस क़दम नहीं उठाये जाते । यदि उठाये जाते तो पुन: राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बस्ते का बोझ कम कैसे हो ? सम्बन्ध में सुझाव/सिफारिश देने की आवश्यकता नहीं होती।

सुझाव
सही अर्थों में पुस्तके अध्यापकों के लिए सूचनाओं का संग्रह और सैद्धांतिक दिशा-निर्देशिका होती है, लेकिन शैक्षिक व्यवस्था ऐसी है कि विद्यार्थियों के बस्ते में अध्ययन सामग्री (पुस्तकें) रटने के लिए ठूस दी जाती है।
पाठ्य पुस्तके विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में रखी जाये, विद्यार्थी सर्वप्रथम अध्यापक द्वारा दिए जाने वाली विषयक जानकारी को सुनें, उसे दोहराये, ग्रहण किए गये ज्ञान को लिखे और तदुपरांत पढ़कर उस पर चिंतन-मनन करें।

शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम में सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ प्रयोगात्मक प्रशिक्षण पर अधिकाधिक बल दिया जाए, क्योंकि व्यवसाय और रोजगार के लिए यह आवश्यक है।

पाठ्यक्रम का निर्माण मांग और पूर्ति के नियमानुसार हितधारकों के प्रतिनिधियों (शिक्षार्थी, शिक्षक, अभिभावक, नीति-निर्माता और अनुभवी शिक्षाविद) से विचार-विमर्श करके किया जाए।

बढ़ती फीस के लिए ज़िम्मेदार कौन?
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर देना सामर्थ्य से बाहर है, किन्तु मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों की लाचारी मन को द्रवित कर देती है। 2-3 संतानों को पढ़ाना, दो समय की रोटी की व्यवस्था में लगे माता-पिता के लिए बहुत बड़ी चुनौती है, एक बच्चे की फीस लाखों में कहाँ से लाये । प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शैक्षिक गुणवत्ता की चर्चा व्यर्थ है। जिस गति से फीस में बढ़ोतरी हुई है, उससे अधिक गति से शैक्षिक बेरोजगारी बढ़ी है। उदाहरण के लिए यदि गुरु गोबिन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के फीस संरचना (structure) का तुलनात्मक विश्लेषण कर लिया जाए तो जमीन-आसमान का अंतर स्पष्ट हो जायेगा । सुधी पाठकों के लिए दो लिंक साझा कर रही हूँ।

http://ipu.ac.in/norms/statues/s27-27.pdf 
http://www.ipu.ac.in/pubinfo2024/nt300424548%20(2).pdf

सुझाव
स्वायत संस्थाओं (विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय) की फीस मान्यता देने वाली (Affiliating body) संस्थाओं के माध्यम से ऑन लाइन हो सकती है।

छात्रवृतियाँ देने की अपेक्षा एडमिशन के समय ही फीस माफ़ अथवा कम की जा सकती है।

पाठ्यक्रम की अवधि के अनुसार शिक्षण सामग्री को दो भागों (सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक) में विभाजित किया जाए तथा सैद्धांतिक शिक्षण के लिए फीस की 50% राशि ही शिक्षण संस्थाओं को दी जाए।

प्रयोगात्मक शिक्षण-प्रशिक्षण सम्बंधित संस्थाओं में नि: शुल्क करवाया जाए । मेरा यह सुझाव “हींग लगे ना फिटकरी, रंग आए चोखा” कहावत को चरितार्थ करता है।

इससे अभिभावकों को केवल आधी फीस ही देनी होगी तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को वर्ष दो वर्ष के लिए अवैतनिक जनशक्ति (Manpowar) मिलेगी।

नौकरी के लिए इच्छुक युवाओं को रुचि और कौशल के आधार पर नौकरियां, स्व रोजगार हेतु प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन तथा उच्च शिक्षा के लिए उपाधि प्राप्त हो सकेगी।

विकसित भारत @2047 के विजन की पूर्ण सफलता के लिए कमेटियों के गठन, सुझावों और लेख से बात नहीं बनेगी। सत्तारुढ़ राजनेताओं एवं नीति-निर्माताओं की इच्छा शक्ति और मानवीय संवेदना को झकझोरने का समय आ गया है।

(लेखिका प्रो. (डॉ.) सरोज व्यास, वर्तमान में  फेयरफील्ड तकनीक एवं प्रबंधन संस्थान, नई दिल्ली , निदेशक के पद पर कार्यरत है ।)

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